Roots

Wednesday, August 12, 2015

गीला गिला


कोई बचाये हमें 
खुद से
अपने ही कैद किये हैं 
खुद को.… 

चंदा दिखें तोह मुस्कुरातें हैं
बच्चें की नादानी पे हसतें हैं
कभी-कबार पतंगे भी उड़ातें हैं
लेकिन अंदर यह कौन रोता हैं?

ऐसी क्या खाई दर्द की
इसकी गहराई भी लापता हो
आखिर बताओ भाई
इस छोटेसे दिल में
कहाँ छिपे रहतें हो?

ऐसा क्या ज़िद्दी बादल हैं
जो त्योहारों पे भी मिलने आये
दिया जलाने जो झुखे
दरवाजे के उसी अंधेर कौने मैं
गीला-गीला भिगाए 

घायल रहने की जैसे आदत सी हो
सुखें जख्मों को खुरेदना
जैसे धार्मिक मजबूरी हो
अंगड़ाई कभी लेने लगें
कोई अंजाने डर से ही सिमटते हो 

गिला तो यूहीं करतें रहते हैं
मगर लड़तें कहाँ
अपनी ही परछाईं सें
हर बारी हार जातें हैं 

क्या आज़ादी मुमकिन नहीं हैं?
अगर इन्सान का जीवन
इसे ही कहते हैं
तोह देवता क्यों नहीं बनातें हैं?

कोई बचाये हमें
खुद से
अपने ही कैद किये हैं
खुद को.… 

- चाँदनी गिरिजा

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