दब गया हैं मेरे शरीर के पानी में
वह संकीर्ण किस्सा
शरीर तो पानी हैं, पानी में
मिश्रित हुआ नहीं अब तक
किसी गुब्बारे की तरह
डकारता हैं अचानक
वह संकीर्ण किस्सा
-
चांदनी गिरिजा
दिन ०५/३० | ३० दिनों में ३० कविता | राष्ट्रीय कविता लेखन माह #napowrimo
Roots
दोस्तों ने कहा, मैं पागल हूँ
घरवालों ने इसके सबूत इखट्ठा किये
मेरा तो खुदसे भरोसा उठ गया
मैक्रोफोने को पकड़े थरथरा रही थी मैं आज
गले से आवाज रोंदी सी आ रही थी
वह शायद सीने से रोना ही निकल रहा था
भाषण के लब्ज़ों में
लोगों को बुरा लगा
भाषण के बाद पीठ थप-थपाये, प्रोत्साहित कर रहे थे
शाम को तुझसे मिली
लैपटॉप के परदेह पर तू हिल रहा था, और जी मैं रही थी
अच्छा लगा
खुदसे मिलकर
मेरी मेरे पागलपन से पूरी पहचान हो गयी
मुझे समझ आया
जैसे माइग्रेन-वाले इंसान को रोशनी सहन नहीं होती
मैं उन्हें सहन नहीं होती
उनके माइग्रेन-भरे सरों में
मैं एक अपवाद हूँ
बीमार तो वो हैं मंटो
पागल तो वो हैं!
- चाँदनी गिरिजा
२८-०१-१९
एक टिमटिम तिनका
आँखों में मेरी, तुम्हारी...
मेरी रेंगती,मिटती, बनती इमारत में
एक यह भी जुडा तिनका
झगमगता, सुनहरा, मीठा
दो पल गुजारे मैने बचपन के
तुम्हारे मासुमियात के साथ
दो पल झिझोरकर देखा
मेरी दबी, छुपी ममता को
सोचती हूँ आँखों में तुम्हारी
हसी इतनी विरल क्यों हैं
तुम्हारी भेद्यता को देखकर
अजीबसा दर्द होता हैं
हलकासा, मीठासा
फिर उसे भूल भी जाती हूँ
अपनी रेंगने, मिटने, बनने में खो जाती हूँ
और फिर कोई दिन तुम्हे
फिर देखती हूँ
छोटी बातों पे तुम्हारा हसना, शरमाना देखती हूँ
और छोटे छोटे, तिनकोवाले लड्डू
मेरी आँखों में भी फूटते हैं!
- चा.गि.
27-12-17
यह रोना हैं ईशक का
हर पिढी का गाना हैं
यह जहर हैं मीठा सा
हर कंठ में फँसा हैं
यह चिंगारी हैं 'होने' की
अस्तित्व का मतलब बनाने की
जिसे जमानेने लालसा से घी पिलाया हैं
धुंदले नजर पे जरा चष्मा बिठा दे
अपनी काठी खुद ही काट दे
यार अब बस भी करते हैं!!
- चा.गि. 25-07-16