Roots

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Wednesday, April 5, 2023

फ़रवरी की बारिश

किसी मेंढक की तरह 
दब गया हैं मेरे शरीर के पानी में 
वह संकीर्ण किस्सा  
शरीर तो पानी हैं, पानी में 
मिश्रित हुआ नहीं अब तक 
किसी गुब्बारे की तरह 
डकारता हैं अचानक
वह संकीर्ण किस्सा
-
चांदनी गिरिजा 


दिन ०५/३० | ३० दिनों में ३० कविता | राष्ट्रीय कविता लेखन माह #napowrimo

Thursday, April 28, 2022

नील बट्टे सन्नाटा

परिवार खून से नहीं बनता
घर से निकल कर
इससे ढूंढो
जो तुम्हारे हिस्से में
एक टुकड़ा धूप का
जोड़ते हैं
वहीं अपने हैं
वहीं परिवार हैं
उनका मिसाल लेकर चलो
सूखे पत्ते में लपेटकर
धागे से बांधकर
गले में डाल चलो
उम्र के साथ देखो
देखो
यह माला कितनी सजती हैं
इसी को अपनी
अपनी एक कामयाबी समझो
चलते रहो
मगर चलते रहो
पानी की तरह
अपना घर 
केवल अपने अंदर बसाओ
-
चांदनी गिरिजा
दिन २८/३० | ३० दिनों में ३० कविताएं | राष्ट्रीय कविता लेखन महीना #नापोरिमो

#napowrimo #napowrimo2022

Wednesday, April 6, 2022

संदेह कि वफादारी


तालियों को सिलसिला 
अब बस शुरू हुआ हैं 
मुझे तो सिर्फ यहीं देखना हैं 
तेरी ताली कितने जोर से बजती हैं 
क्या मेरे घर में गूंजती हैं 
क्या मेरे मोहल्ले में 
मेरे शहर में 
या 
क्या तेरी ताली 
मेरे लिए बजनेवाली तेरी ताली 
क्या मेरे देश में गूंजती हैं 
तय कर ले 
तू आज तय कर ले 
दोस्त, 
तू कितना कायर हैं 
या तू कितना अटल हैं 
दोस्त मेरे,
आज तू तय कर ले 
क्या तू मेरा दोस्त हैं 
या मेरा दुश्मन हैं? 
-
चाँदनी गिरिजा 
दिन ०६/३० | ३० दिनों में ३० कवितायेँ | राष्ट्रीय कविता लिखन माह | #नापौरीमो 
#napowrimo #napowrimo2022

Image: A still from the movie 'Gangubai Kathiawadi.' Source - IndiaToday

Thursday, July 22, 2021

विकल्प क्या हैं?

 मजहब से लोगों को इतना इतराज क्यों है?
क्या मजहब को समझा हैं लोगों ने?
हिंसा और बैर की बातें करते हैं  
क्या उसी समाज के कार्यकारी को समझा हैं लोगों ने?
अगर समझा है, तो बताइए -
सामूहिक स्तर पर विकल्प क्या हैं,
मजहब का विकल्प क्या हैं?!
- चाँदनी गिरिजा
१४-०८-१९

Saturday, April 24, 2021

हम कैद रहेंगे

मौत दरवाजे पर हैं 
घंटी बजा रही 
उम्मीद खिड़की पर हैं 
कहती हैं कूदेगी 
हमने अब सोच लिया हैं 
दरवाजा और खिड़की 
दोनों बंद रहेंगे 
उम्मीद के साथ 
हम घरपर कैद रहेंगे 
जो साथी छोड़कर चले गए हैं 
जो फेफड़ों से संघर्ष कर रहें हैं 
नीली-हरी में जो सीमा पर लढ रहें हैं 
हमारे बच्चे, हमारे बूढ़े 
मित्र-बंधू 
जो साँस साथ हमारे ले रहें हैं 
हमारी जिस्मों में बस्ती जानें 
कर्जदार इनके रहें हैं 
सरकार साथ दे भी ना अगर 
हम मिलकर श्रृंखला तोड़ेंगे 
हौसले कि श्रृंखला जोड़ेंगे 
अटल रहेंगे 
सतर्क रहेंगे 
उम्मीद के साथ 
हम घरपर कैद रहेंगे
-
चाँदनी गिरिजा 
अप्रैल २४, २०२१ 

This poem is as an attempt to honour Ravindra Bansode's memory. Ravindra was a PhD scholar from our centre (Centre for Study of Social Exclusion and Inclusive Policies, TISS) who passed away yesterday due to Covid-related complications. I never had the good fortune of interacting directly with him. But I remember him distinctly from our group meetings. He was humble and soft-spoken. It is unsettling to think that someone whose face I saw, voice I heard over Zoom calls, just a few months back, is no more. We have lost such a young person, a future doctorate and, as so many Ambedkarite brothers and sisters have lamented, a valuable part of the Ambedkarite movement. An abrupt end to so many possibilities and dreams. It saddens and angers me. But we owe to Ravindra and the others like him, who left us too soon, to not be broken. 
I wish strength to his wife, two children and dear ones. 
Jai Bhim, Ravindra!



Day 24 of 30 | 30 Poems in 30 Days | National Poetry Writing Month #napowrimo


Tuesday, November 24, 2020

बेचैनी

रंग भरना इतना आसान न होता
गर ये नादानी न होती
रंग तो भिखरे पडे थे
इन्हे परखना इतना आसान न होता
गर ये आतुरता न होती
फर्श तो बाँझ पडा था
इसका रंगोली से फुलना इतना आसान न होता
गर ये बेचैनी न होती
ये तेरी बेचैनी न होती
कुछ करने कीं
कुछ कुछ करने कीं
कुछ करते रेहने कीं
ये तेरी बेकली
ये खारिश न होती
दोस्त, सलाम मेरा
सलामत रहें तेरी ये लालसा!

- चांदनी गिरीजा
31-10-16

Tuesday, August 4, 2020

मंटो

दोस्तों ने कहा, मैं पागल हूँ 

घरवालों ने इसके सबूत इखट्ठा किये 

मेरा तो खुदसे भरोसा उठ गया 

मैक्रोफोने को पकड़े थरथरा रही थी मैं आज

गले से आवाज रोंदी सी आ रही थी

वह शायद सीने से रोना ही निकल रहा था

भाषण के लब्ज़ों में 

लोगों को बुरा लगा 

भाषण के बाद पीठ थप-थपाये, प्रोत्साहित कर रहे थे

शाम को तुझसे मिली

लैपटॉप के परदेह पर तू हिल रहा था, और जी मैं रही थी 

अच्छा लगा

खुदसे मिलकर

मेरी मेरे पागलपन से पूरी पहचान हो गयी 

मुझे समझ आया 

जैसे माइग्रेन-वाले इंसान को रोशनी सहन नहीं होती

मैं उन्हें सहन नहीं होती 

उनके माइग्रेन-भरे सरों में 

मैं एक अपवाद हूँ 

बीमार तो वो हैं मंटो 

पागल तो वो हैं!

- चाँदनी गिरिजा 
२८-०१-१९

Wednesday, February 1, 2017

टिमटिम लडकी

एक टिमटिम तिनका
आँखों में मेरी, तुम्हारी...
मेरी रेंगती,मिटती, बनती इमारत में
एक यह भी जुडा तिनका
झगमगता, सुनहरा, मीठा
दो पल गुजारे मैने बचपन के
तुम्हारे मासुमियात के साथ
दो पल झिझोरकर देखा
मेरी दबी, छुपी ममता को
सोचती हूँ आँखों में तुम्हारी
हसी इतनी विरल क्यों हैं
तुम्हारी भेद्यता को देखकर
अजीबसा दर्द होता हैं
हलकासा, मीठासा
फिर उसे भूल भी जाती हूँ
अपनी रेंगने, मिटने, बनने में खो जाती हूँ
और फिर कोई दिन तुम्हे
फिर देखती हूँ
छोटी बातों पे तुम्हारा हसना, शरमाना देखती हूँ
और छोटे छोटे, तिनकोवाले लड्डू
मेरी आँखों में भी फूटते हैं!

- चा.गि.
27-12-17

Tuesday, January 24, 2017

😜

शायर से ना पूछो
"कभी इश्क किया हैं?"
कलम तो फितरत ने थमायी
स्याही तो मोहब्बत ने बहायी!

- चा. गि.
24-01-17

Monday, July 25, 2016

कारी जख्म

यह रोना हैं ईशक का
हर पिढी का गाना हैं
यह जहर हैं मीठा सा
हर कंठ में फँसा हैं
यह चिंगारी हैं 'होने' की
अस्तित्व का मतलब बनाने की
जिसे जमानेने लालसा से घी पिलाया हैं

धुंदले नजर पे जरा चष्मा बिठा दे
अपनी काठी खुद ही काट दे
यार अब बस भी करते हैं!!

- चा.गि. 25-07-16

Monday, July 11, 2016

Hide Tide :D

"नशीबत हा फुलांचा
का सांग वास येतो
हासून पाहिल्याचा
नुसताच भास होतो"

टप-टप-टप
पड़ती हैं बारिश की बूँदें 
और शुरू होता है यह गीत
समुंदर की लहरों कि तरह
पहले धीमे-धीमे
हल्का-फुल्कासा
फिर तेज
डुबाने जैसा
अाज खिल उठा है पूरा कमरा
मेरी हँसी की रौनक से
देखो
मेरे अपनों के चेहरों पर
सूरज बेहया अपना तन फैला रहा है!
रोशनी की किरण
मेरी अाँखों से जाकर
उनकी अाँखों में टकरा रहा है
और उनकी अाँखों से
दीवारों पर
दीवारों से छत पर
छत से फर्श पर
और बाढ़ की तरह
यह सिलसिला
बढ़ता ही चला जाता है

अाज खुशी से फुली न समाई हूँ...

- चाँदनी गिरीजा 

Wednesday, August 12, 2015

गीला गिला


कोई बचाये हमें 
खुद से
अपने ही कैद किये हैं 
खुद को.… 

चंदा दिखें तोह मुस्कुरातें हैं
बच्चें की नादानी पे हसतें हैं
कभी-कबार पतंगे भी उड़ातें हैं
लेकिन अंदर यह कौन रोता हैं?

ऐसी क्या खाई दर्द की
इसकी गहराई भी लापता हो
आखिर बताओ भाई
इस छोटेसे दिल में
कहाँ छिपे रहतें हो?

ऐसा क्या ज़िद्दी बादल हैं
जो त्योहारों पे भी मिलने आये
दिया जलाने जो झुखे
दरवाजे के उसी अंधेर कौने मैं
गीला-गीला भिगाए 

घायल रहने की जैसे आदत सी हो
सुखें जख्मों को खुरेदना
जैसे धार्मिक मजबूरी हो
अंगड़ाई कभी लेने लगें
कोई अंजाने डर से ही सिमटते हो 

गिला तो यूहीं करतें रहते हैं
मगर लड़तें कहाँ
अपनी ही परछाईं सें
हर बारी हार जातें हैं 

क्या आज़ादी मुमकिन नहीं हैं?
अगर इन्सान का जीवन
इसे ही कहते हैं
तोह देवता क्यों नहीं बनातें हैं?

कोई बचाये हमें
खुद से
अपने ही कैद किये हैं
खुद को.… 

- चाँदनी गिरिजा